आनन्दधारा आध्यात्मिक मंच एवं वार्षिक पत्रिका

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्द:खभाग्भवेत्

देवराहा लहरी

देवराहा बाबा

शिव हो तुम गुरुवर देवराहा, प्रसरित हो समस्त कायों में
पूजन अर्चन करुँ कैसे गुरुवर, हूँ असमर्थ समस्त उपायों में
तुम्हीं करो विधि निश्चित हरिहर, करुँ भव्य आराधन
पतित पावन पुण्य पुंज, सफल करो मेरा स्वसाधन

पवित्र पाद् पदमों में नत हूँ, पुलकित है मेरे नेत्र
माँ कुण्डलिनी का हुआ जागरण, बढ़ा मेरा ध्यान क्षेत्र
धारण किया देवराहा चरण को, मैंने अपने मन में
उच्च आध्यात्मिक भावों का, प्राक्टय हुआ मेरे तन में

मूढ़ हूँ मैं निर्बल अज्ञानी, लिपटी रही कालिमा चारो ओर
बढ़ना चाहा ईश नगर को, मिला कहीं न छोर
भव बन्धन का दृढ़ आलिंगन, कैसे हों उपलब्ध
संसार पोत का गिरा है लंगर, मैं निरुपाय स्तब्ध

हे करुणाकर ! आनन्द स्रोत का, हो जाय आज संधान
भव भय से मिले मुक्ति, प्राप्त हो परमार्थ ज्ञान
जन्म-जन्मान्तर से गर्भ कारा में, होता रहा पतित
आनन्द ज्योति बरसे अब मुझपर, बढ़े प्रभु से प्रीति

सौभाग्य प्रदाता गुरुवर देवराहा, कर रहा अर्चन ‘व्योमेश’
आदिकाल से पूजित हो जग में, शिव रुप में ख्याति विशेष
बारम्बार नमन करुँ  मैं गुरुवर, गिराऊँ तुम्हारे चरणों पर अश्रुधार
स्नेह तुम्हारा पाकर हूँ उत्साहित, कर दो बेडा पार

गेहस्थ मैं, गृहस्थ भी मैं ही, मागूँ तव आशिष
काया मेरी बने तेरी ड्योढी, झुकाऊँ हर्षित हो अपना शिष
भाव-राज्य का मैं एक प्रहरी, चढ़ा रहा भाव का फूल
भाव स्थिर करो गुरुवर देवराहा, मेरे मस्तक पर तेरा धूल

भ्रमर हूँ मैं ध्यान पुष्प का, करता मधु सिंचन
गुरुवर के पवित्र नामों का, अहर्निश होता गुन्जन
आशिष-मधु का  हूँ लोभी मैं, चाहूँ गुरु अधरों पर मुस्कान
मेरे मस्तक पर चरण गुरु का, मिले मुझे अभय का दान

गुरु-ध्यान की फिक्र मुझे, और न कोई काम
नाम भजूँ गुरुवर का मैं तो, दिवा निशि आठो याम
गुरुवर देवराहा का नाम जपा, जिसने भी एक बार
परमार्थी को इष्ट मिला, गृहस्थ का संभला संसार

‘भु:’ ‘भुव:’ ‘स्व:’ के त्रिचक्र का, उलझा हुआ कारोबार
मूलाधार और स्वादिष्ठान का, मणिपूर तक विस्तार
गुरु-चरण की सेवा से ही, मिले त्रिचक्र का ज्ञान
पृथ्वी, अग्नि और जल तत्व का, साधक पाये निदान

अमृत वाणी मूक हुई, स्थूल दर्शन में नाकाम
सूक्ष्म लोक में विचरण मेरे गुरु का, मांस-मज्जा का भला क्या काम
आज भी प्रत्यक्ष हैं मेरे गुरुवर, देवराहा परमाकार
शिवरुप गुरुवर सदा प्रमुदित, है जागृत कुल कुंड़ाधार

मूल प्रकृति महाविद्या की, है पारे सी धवल
दस कोणों से है बँधी, हीरक कणों सी है उज्जवल
गुरुवर ही समस्त प्रकट करने में, अन्यथा महाविद्या असाध्य
सांसारिक पटुता न आये काम, गुरुवर को कर सके न कोई बाध्य

काली, तारा और षोड़शी, कुन्डलिनी के क्रमिक त्रिचक्रों में
मूलाधार के वज्र पीठ का, है गणन पृथ्वी-तत्व के वक्रों में

मूलाधार में विराजे काली मैया, स्वादिष्ठान में तारा
मणिपूर में हैं स्थित षोडशी, पद्म भावों की बहती धारा

स्वादिष्ठान के अग्नि तत्व का, मणिपूर के जल-तत्व से है मेल
संतुलित है भव का जीवन चक्र, महामाया का है अद्भुत खेल

भैरवी, भुवनेश्वरी और छिन्नमस्ता से, है व्याप्त कुन्डलिनी चक्र अनाहत
आघात संरक्षित इस चक्र में, साधक करता त्याग समस्त चाहत

विशुद्ध चक्र है विश्वविद्यालय, कठिन है पाठ्यक्रम
माँ धूमावती काटती मोहपाश, हर लेती समस्त श्रम
साधना के अन्य तत्वों का, कैसे हो पाये कलन
माँ पीताम्बरा और मातंगी, करती सहस्र शत्रु दलन

कुन्डलिनी योग का मुख्यालय, है अवस्थित दोनों भौहों के बीच
ध्यान-रस से करता आप्लावित, ईश भाव को सींच
जीव-ईश का झीना परदा, फटने को अब आतुर
कर्ण गुहा में बजे घंटियाँ, सुनो देव निनाद का सुर

माँ कमला का है पवित्र आसन, आज्ञा चक्र कहते इसे
‘हं’ ‘क्षं’ के दो कमल दलों से, जानते साधक इसे
अष्टसिद्धि और नवनिधि का, है यह स्थायी आश्रय
स्व भाव की उपलब्धि का, होता न कभी क्षय

अति कमनीय हैं गुरुवर मेरे, छवि उनकी देव रुपों सी
बाहुओं की दृढ़ता मेरी गुरु जैसी, है नहीं किन्हिं भूपों की

आड़म्बर और वस्त्र आभरण से, हैं गुरुवर मेरे अनजान
तेल-फुनेल जाने नहीं गुरुवर, पादुका हीन चरण सुजान

वाग्देवी माँ सारदा के, हैं मेरे गुरुवर अवतार
सरस सूक्तियों में प्रकट करते तत्व, हैं विपुल ज्ञानागार
सुन्दर श्वेत देहद्युति शोभित, चन्द्रकान्त मणि समान
सहस्र गजों का बल है संचित, मेरे गुरुवर हैं महान

मुझ सेवक पर करो कृपा, हे भवानी पुत्र !
गुरु देवराहा की सेवा का, मिला दृष्टि को सूत्र
गुरु स्तुति, गुरु-नामजप और गुरु नाम निनाद
वज्र आसन में बैठा ‘व्योमेश’, दो गुरुवर कृपा-प्रसाद

ऊँ सद्गुरुदेव परमहंसाय नम:
ऊँ सद्गुरुदेव परमहंसाय नम:
ऊँ सद्गुरुदेव परमहंसाय नम:

 

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